Thursday 31 December 2015

संकल्प

मन में उत्साह उमंग है
एक अलग सी तरंग है
जिसके अनोखे रंग हैं
इससे मन उतंग है
और बन गया पतंग है
विचारों की डोर संग है
जीवन के लिए नई जंग है
क्योंकि
आज वर्षांत है
मन कुछ क्लांत है
पर नये वर्ष का प्रारंभ
मन में भर रहा आनन्द है
संकल्पों को लेकर द्वंद है
पर क्षण अब कुछ चंद हैं
फैसला करना जल्द है
क्योंकि
वर्ष पहन रहा ह नया चोला
पुरानी आदतों में हैं कुछ शोला
इसीलिए मन मेरा बोला
न बन तू भोला
ये सब हैं करेला
कर देगें तुझे अकेला
जीवन तो है एक मेला
गर इनको बाहर न ठेला
तो होगा बड़ा झमेला
इसीलिए
संकल्पों का गुलदस्ता
मन में रखा अहिस्ता
इनसे जोड़ना है नाता
मन में खोलना है खाता
रोज़ अभ्यास का तांता
लगाना ही होगा भ्राता
इससे निखार आता
जीवन सुधर है जाता

Hope this year will be a prosperous and revolutionary year for you
Good Luck
All the Best

Dr. Chanchal Jain

नववर्ष

अभी हाल ही की तो बात थी
जब नया वर्ष आया था
और उसका स्वागत मैंने
अति उत्साह से किया था
पर आज इस वर्ष के अंतिम दिन
कुछ अजीब सा लग रहा है
जैसे कोई अपना साथ छोड़ रहा हो
पर ये भी प्रकृति का नियम है
ये वर्ष बहुत कुछ यादें छोड़े जा रहा है
इस वर्ष कुछ अपने बिछड़े
कुछ नए लोगों का साथ हुआ
कुछ अच्छी यादें जुड़ीं
कुछ बुरी यादों का साथ हुआ
जैसा सोचा था वर्ष कुछ वैसा ही रहा
कुछ नए अनुभव लिए
कुछ नई सीख मिलीं
कुछ मौज-मस्ती
कुछ आनंद के साथ
यह वर्ष अब समाप्ति पर है
इसे एक अच्छा अलविदा
क्योंकि कहते हैं कुछ करना है
तो आगे देखो, आगे बढ़ो
इसीलिए इस वर्ष को एक
अच्छा समय मानकर
मैं नए वर्ष का
दुगुने उत्साह और नई आशाओं
के साथ स्वागत करती हूँ
इन मनोभावों के साथ
कि यह वर्ष सभी के जीवन में
खुशियाँ, समृद्धि और शांति लाए
सभी अपने लक्ष्यों को पाएं
आत्मविश्वास, उत्साह और साहस
का सभी में संचार हो
अच्छे अनुभवों की कतार लगे
सकारात्मक नज़रिए का विकास हो
सपनों न केवल संजोयें
अपितु उनको सच करने में भी जुटें
सेवा, प्रेम, दया के भाव बनें
सभी का जीवन सुखमय हो
मंगलमय हो

इन्हीं भावों के साथ आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

Dr. Chanchal Jain

Tuesday 8 December 2015

रुचिकर

रुचिकर रहता याद दिनोंदिन
अरुचिकर रहता याद न एक दिन
यह हम सबकी समस्या है
कैसे इसको हल करें हम

कारण को पहले खोज निकालें
क्या कारण है कि
रुचिकर याद तो रह जाता है
क्यों अरुचिकर ध्यान से हट जाता है

हल तो बिलकुल सीधा है
अरुचिकर को रुचिकर बनायें
अरुचिकर को रूचि से जोड़ें
ज्ञान का दायरा बढ़ायें

Monday 7 December 2015

प्रकृति

होगी तब ही संतुष्टि
होगी जब एक बात की पुष्टि
कैसे करती है समन्वय ये सृष्टि
कैसे सब पर समान इसकी दृष्टि
कैसे करती ये जरूरतों की तुष्टि
कैसे करती ये सब पर समान वृष्टि
क्या इसी का नाम है प्रकृति 
क्यों हो गयी इसकी दुर्गति
क्या यही है हमारी संस्कृति

उत्तर कुछ यूँ मिला

क्योंकि ये है दया की मूर्ति
करती है सबकी पूर्ति
कभी न द्वेष भाव रखती
बड़ी उदार इसकी प्रवृत्ति
अपना सब कुछ ये दे देती
स्वयं में जीवन को धारती
मानव को माँ सा पालती
गोद में अपनी खिलाती
ऑक्सीजन देती पानी देती
और न जाने क्या-क्या देती
अपना वारिस इसे बनाती
इसी का नाम है प्रकृति
पर मानव की बात निराली
इसकी सोच में है खराबी
मानसिकता में आ गई विकृति
मानव की बिगड़ गई प्रवृत्ति
बढ़ी संसाधनों के दोहन की आवृत्ति
मानव को प्यारी उसकी संपत्ति
नहीं प्रकृति की बर्बादी से आपत्ति
इसीलिए प्रकृति पर आई ये विपत्ति
हो गई इसीलिए प्रकृति की ये स्थिति

Sunday 6 December 2015

मनोभाव

मनोभावों में दृढ़ता हो तो
सब कुछ आसान होता है
मानव इसके बल पर
नए-नए आयामों को छूता है

कठिन काम भी मानव को
आसान सा प्रतीत होता है
आगे बढ़ने का साहस
मानव में स्वतः आ जाता है

चाहे पर्वत पर चढ़ना हो
आकाश को चाहे छूना हो
धरती से सोना उगाना हो
चाहे नदी पे बाँध बनाना हो

नए कीर्तिमान स्थापित कर
अपना अलग स्थान बनाता है
इतिहास की श्रेणी में मानव
नए अध्यायों को लिखता है

Thursday 3 December 2015

सपनों की कीमत अपने


अपनों की इस दुनिया में कोई न अपना सा है
सपनों की इस दुनिया में हर सपना सपना सा है
अपना अब सपना सा है सपना अब अपना सा है
अपनों से प्यार नहीं उतना जितना प्यार है सपनों से
अपनों के लिए मैं नहीं बिका, बिक गया मैं सपनों के लिए
और कीमत मिली मुझे बस धन-दौलत, गाड़ी, बंगला
आज पास बहुत कुछ है पर साथ नहीं है अपनों का
रह रहकर याद वही आता है वह साथ था जो अपनों का
सोचा था ये सब संतुष्टि देगें अपनों की कमी न होने देगें
पर अब जाना ये सबके सब न तुष्टि देगें न सुख देगें
अब महसूस किया कि सपना तो सपना ही होता है
अपनों का साथ कहाँ सभी को आसानी से नसीब होता है
पीछा करते करते सपनों का मैं आ पहुँचा हूँ मंज़िल पर
ये मंजिल शायद खड़ी हुई है अपनों के अरमानों पर
सपने तो मेरी झोली में हैं पर अपने हो गये हैं दूर बहुत
हँसी-ठिठोली घूमना-फिरना अपनों संग याद आता है बहुत
अपनों की कीमत सपने थे सपनों की कीमत अपने थे
सपने न अपने ही हुए पर अपने अब सपने से हुए
इन सपनों की चकाचौंध में हम न जाने कहाँ गुम से हुए
सपनों की भीड़ बहुत है लेकिन मैं बिल्कुल अकेला हूँ
शायद मैं सपनों के संग अपनों सा बनकर खेला हूँ
अब हम भी न हम ही से रहे फिर दूसरों से क्यों आशा ही करें

Wednesday 2 December 2015

स्वभाव

स्वभाव अर्थात स्व का अभाव
पहले स्वभाव का अर्थ था स्वयं का अभाव। अपने बारे में बाद में सोचना और दूसरों के हित का विचार करना ही मानव का स्वभाव हुआ करता था परन्तु समय के साथ शब्द 'स्वभाव' की परिभाषा परिवर्तित हो गई है। अब स्वभाव का अर्थ है 'स्व भाव' अर्थात अपने का भाव। आज मानव केवल अपने हित का भाव रखता है और यह उसका स्वभाव बन चुका है।